Saturday, February 9, 2019

मोदी अगर क़ातिल है तो मसीहा कौन है?If Modi is Murdere, who is saviour?


मोदी अगर क़ातिल है तो मसीहा कौन है?

अब्दुल मोईदअज़हरी
2019 का लोकसभा चुनाव क़रीब है। लोभ लुभावन कार्यक्रम शीर्ष पर है। आरोप प्रत्यारोप की प्रकिया भी चरम सीमा पर है। व्हाट्स एप कॉलेज और फेसबुक यूनिवर्सिटी विचारों के आदान प्रदान में व्यस्त हैं। इन तीन महीनों में हर गली कूचे में बैठा हुआ बेरोज़गार युवा घर के किसी कोने में बैठ कर मोबाइल की स्क्रीन पर देश की दिशा और दशा पलट रहा होगा। जीत और हार के फैसलों के साथ सियासी रणनीतियों का गहरा अध्ययन करने के पश्चात वफादारी और ग़द्दारी के सर्टिफिकेट भी बाँट रहा होगा। इन तमाम कुलेखनों के सोर्स और माध्यम इस वक़्त देश के दो सब से बड़े विश्व विख्यात और प्रचलित खोज ख़बर के संस्थान व्हाट्स एप और फेसबुक होंगे। देश, समुदाय, भाषा और संस्कृति के अलावा संविधान की रक्षा भी इन्हीं दोनों संस्थानों से सुनिश्चित कराने की जंग होगी। जिस के ताज़ा नमूने हम और आप देख रहे हैं।
हालाँकि धर्म, जाति और समुदाय के नाम पर राजनीति अपने आप में एक कुरीति जिसे बंद होना चाहिए लेकिन अब देश की राजनीति इस की जकड़ में है। यूपी और बिहार इस मामले में उच्च स्थान पर हैं।
मुसलिम समुदाय में आज का गरम मुद्दा यह है कि अगर बीजेपी वापस सत्ता में आ गई तो मुसलमानों को पाकिस्तान भेज दिया जायेगा। संविधान बदल दिया जायेगा और देश को हिन्दू राष्ट्र में बदल दिया जायेगा। इस लिए किसी भी सूरत में देश से भाजपा को हटाने के लिए एकजुट होने की आवश्यकता है। इन सब की ज़िम्मेदारी सब से ज़्यादा मुसलमानों पर है।
बीजेपी, मोदी, और आरएसएस के मुसलमानों के क़ातिल होने की जितनी चर्चा देश में हुई है उतनी चर्चा कभी मुज़फ्फर नगर, केराना, बाबरी मस्जिद, 1984 के सिख नर संहार जैसे अनेकों सांप्रदायिक दंगों की नहीं होती जिन में पिछले 4 सालों में मोब लिंचिंग में क़त्ल किये गए पचासों बे गुनाहों से कहीं ज़्यादा लोग, घर और परिवार जला दिए गए भगा दिया गए। क्यूँ?
हर बेगुनाह का क़त्ल क़त्ल है और हर क़ातिल क़ातिल है इस विचार पर चर्चा क्यूँ नहीं होती?
हर इलेक्शन में मुसलमानों का वोट उन्हें डरा कर लिया जाता है। डर कर डाले गए वोट की कोई कीमत नहीं होती। क्यूँ कि जब किसी पार्टी को यह एहसास हो जाये की उसे वोट देना मुसलमानों की मजबूरी है तो उस के विकास और भागीदारी की बात क्यूँ होगी।
हर चुनाव में इस्लाम ख़तरे में होता और यह ख़तरा पिछले कई दशकों से है। अन्दर की जंग पर तो कोई लगाम नहीं है। एक कलमा, एक खुदा, एक क़ुरान और एक रसूल के मानने वालों का इत्तेहाद किसी भी समाजी व सियासी मामलों में अब तक नहीं हो सका लेकिन इलेक्शन के टाइम पर ज़बानी इस्लाम की हिफाज़त का ज़िम्मा सर पर होता है। अक़ीदा तो यह है कि इज्ज़त, ज़िल्लत, ज़िन्दगी और मौत ख़ुदा के अख्तियार में है लेकिन ….
देश का छोटा से छोटा वर्ग और समुदाय राजनीती में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए लड़ाई लड़ रहा है और 20% आबादी वाला समुदाय या तो दीन बचा रहा है ज़बानी जिहाद कर के एक दूसरे का अक़ीदा सही और ग़लत करने में लगा है।
इस वर्चुअल डर से बाहर निकल कर सियासी भागीदारी और सत्ता में हिस्सेदारी के लिए मुसलमान फिक्र मंद कब होगा?
कब तक मोदी क़ातिल नाम पर अपनी वोट की ताक़त को कचरे में डालता रहेगा? अभी तय कर लो। तुम्हें तुम्हारा सियासी अधिकार देने के लिए कौन तैयार है? मोदी अगर क़ातिल है तो मसीहा कौन है?

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