गाँधी मुस्लिम और गोडसे हिन्दू होते जा रहे हैं और हम?
[अब्दुल मोईद अज़हरी]
देश की वर्तमान राजनीति जिस और जा रही है यह समूचे भारत के लिए दुखदायी है।
गाँधी और गोडसे के बीच मोती होती दीवारें और गहरी होती खाइयाँ गाँधी और गोडसे के
के अहिंसा और हिंसा के प्रतीक को ख़त्म करते जा रहे हैं। धार्मिक हिंसा और नफ़रत इस
क़दर बढ़ गई है कि देश की दशा और दिशा की सुध ही नहीं है। विपक्ष की बिसात और कन्धों
पर की जाने वाली राजनीति का अंत बर्बादी के सिवा कुछ नहीं है।
कल जिस तरह से एक बच्चे ने अपने हाथ में पिस्तौल ले कर नागरिकता संशोधन क़ानून
के विरोध में धरना प्रदर्शन क्र रहे निहत्थे छात्रों पर गोली चलाई और हवा में
बन्दूक लहरा कर अपने प्रेरकों का अभिवादन किया है वह चिंता का विषय है।
यह सवाल देश के हर नागरिक को करना चाहिए। अभी दो दशक भी नहीं बीते हैं जब
मुस्लिम कट्टरवाद की जड़ों तक पहुँच कर उस के स्रोतों और प्रेरकों पर प्रहार किये
गए हैं। कुछ मुस्लिम नौजवानों को भी यही बताया गया था कि जब ख़ुद को बम से उड़ा कर
कुछ लोगों की जान नहीं ली जाएगी इस्लाम की रक्षा नहीं होगी और न ही खुदा खुश होगा।
आख़िरकार मुस्लिम तथाकथित जिहाद पूरी दुनिया में इस्लाम और मुसलमानों के लिए
शर्मनाक हो गया। पिछले एक दशक से विश्व भर का मुसलमान सफाई देता फिर रहा है
क्यूंकि जिहादी कट्टरता फैलते समय बहुसंख्यक मुस्लिम चुप था। चुप इस लिए था कि देश
विदेश में कई जगह मुसलमानों पर अत्याचार हो रहे थे। इस लिए उन सरफिरों ने बदले के
लिए हिंसा का रास्ता अपनाया। नतीजा हमारे सामने है।
जिस तरह इस्लाम हिंसा की इजाज़त नहीं देता उसी तरह सनातन धर्म और संस्कृति भी
किसी तरह की हिंसा का घोर विरोधी है। जिस तरह इस्लाम के नाम पर व्यक्तिगत, राजनैतिक और व्यवसायिक लाभ के लिए कट्टरता को
धर्म की रक्षा की आड़ में जिहादी विचारधारा फैलाई गई। डर का व्यापार किया गया।
मारकाट की विडियो बना कर सोशल मीडिया पर वायरल की गयी ठीक उसी तरह हिन्दू धर्म की
रक्षा की आड़ में हिंदुत्व के नाम पर कट्टरता को धर्म युद्ध बता कर युवाओं को
बहकाया जा रहा है।
यह मामला शरजील इमाम या रामभक्त गोपाल का नहीं है। यह तो सरकारी संरक्षण में सांप्रदायिक
राजनीति के आरम्भ का मामला है। जिस तरह का वक्तव्य आज की राजीनीति में हो रहा है
वो देश के युवाओं दिशाहीन कर के उन्हें अपने देश के ख़िलाफ़ खड़ा करने का काम आज की
बेलगाम बयान बाज़ियाँ कर रही हैं।
देश का युवा देश के विकास और उस की ऊंचाई के बारे में सोचने के बजाये ऐसे धर्म
को बचाने में लगा है जिस का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
आज का समाज देश के बहुसंख्यक के लिए एक परीक्षात्मक चुनौती है। धर्म के नाम पर
बसाये गए एक भारत के एक छोटे से टुकड़े का हल सभी ने देख लिया। यही वजह है कि भारत
का अपना एक संविधान तैयार हुआ जिस में उस वक़्त सभी धर्मों और वर्गों के
प्रतिनिधियों ने देश को धर्म निरपेक्ष और लोकतान्त्रिक रखने का फैसला किया।
अल्पसंख्यकों के लिए भी एक ऐसी ही परीक्षात्मक चुनौती पूर्ण घड़ी आयी थी। जब
उन्हें जिन्ना और आज़ाद में से किसी एक चुनना था। जिन्ना के साथ इस्लामी देश का
सपना था। मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी थी। आज़ाद के साथ अल्पसंख्यक की श्रेणी थी और
धर्म निरपेक्षता एवं लोकतंत्र का वातावरण। उन्हों ने अपना चुनाव कर लिया था।
आज बहुसंख्यक के लिए भी शायद चुनाव की घड़ी आ गयी है। गाँधी और गोडसे के बीच
चुनाव करना है। गोडसे के साथ जिन्ना जैसा देश मिल सकता है और शायद पाकिस्तान जैसी
बर्बादी भी। गाँधी के के साथ लोकतंत्र, धर्म निरपेक्षता और संवैधानिक जीवन।
रही बात कट्टरपंथी सोच और विचारधारा की तो उसे कभी भी ख़त्म किया जा सकता
है।ज़ुल्म और अत्याचार के ख़िलाफ़ सत्ता, समाज या या शासन की ख़ामोशी बड़ा नुकसान करती है। धर्म के नाम पर उन्माद फैलाने
वालों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है लेकिन उन की आवाज़ में ज़ोर इस लिए है क्यूंकि
सुनने और सुन कर चुप रहने वालों की संख्या ज़्यादा है।
जब शरजील इमाम की गिरफ़्तारी हुई तो उस के नाम और धर्म से देश द्रोह जोड़ दिया
गया। अब रामभक्त गोपाल के साथ भी भगवा आतंकवाद थोप दिया जायेगा। इस से इस
कट्टरपंथी विचारधारा को और मज़बूती ही मिलेगी।
सोशल मीडिया के देश भक्त, धर्म रक्षक और घोर समाज सेवक, विचारक एवं क्रन्तिकारी बुधीजिवियों के टाइम
पास के लिए एक टॉपिक हो गया है। इस से फर्क़ नहीं पड़ता है कि इस अनावश्यक वाद विवाद
में देश का असल मुद्दा कहीं खो जाता है।
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