लचर क़ानून
व्यवस्था से मुजरिम के हौसले बुलंद
तुरंत करवाई और कड़ी सज़ा बड़े पैमाने पर अपराध ख़त्म करने के
लिए आवश्यक
[ अब्दुल मोइद
अजहरी ]
कभी कभी इन्सान का सामना कुछ ऐसे हादसों से हो जाता है जिस
के बारे कुछ बताने के लिए शब्दों का चुनाव मुश्किल हो जाता है। ऐसे हादसे जज़्बात को
इतना ज़्यादा उभार देते हैं कि उन जज़्बात का इज़हार करने के लिए शब्दों का चयन उनका
उद्बोधन और उच्चारण सब व्यर्थ लगने लगते हैं। ऐसा नहीं है कि इस तरह के
हादसे नए होते हैं। दुनिया के किसी
कोने में कोई न कोई इस तरह के हादसों का शिकार होता रहता है। इस स्रष्टि को बनाने वाले ने प्रकृति बना कर मानव
जाति पर बड़ा उपकार किया है। समय जो बड़ा बलवान होता है। सरे सुख दुःख का वाहक होता
है। समय की खास बात यह है कि वो गुज़र जाता है। चाहे अच्छा हो या बुरा हो। ऐसे हादसों की
हम खबरें सुनते हैं और सुनने के बाद कुछ पल या कुछ दिनों में वक़्त गुजरने के साथ भुला
देते हैं। हाँ जब खुद या कोई
अपना इस का शिकार होता है तो दिमाग में उस की छवि कई दिनों तक रहती है। आत्मा को बेचैन करती
रहती है। कभी कभी तो ऐसा
भी लगता है की जीवन बेकार है। ‘जब पीड़ित या पीडिता के लिए कुछ कर नहीं सकते तो जीने का
क्या अर्थ है’ जैसे ख़याल भी आते हैं। फिर भी हम जीते हैं क्यूंकि हम इन्सान हैं।
आज कल कुछ बिगड़े बेरोज़गार नौजवानों ने ठान लिया है कि कोई
चीज़ हमें सीधे तरीक़े से नहीं मिलती तो उस के लिए उंगली टेढ़ी करनी पड़ेगी और हर हल
में इच्छा पूरी करनी है। यह इच्छा अगर
इन्सान के खुद के अधिकार पाने की हो तो कोई गलत नहीं। लेकिन अगर यह इच्छा किसी
की ज़िन्दगी और इज्ज़त लेने की हो तो सोच कर ही रूह कांप जाती है। आखिर किसी की जान की
कीमत इतनी सस्ती कैसे हो जाती है कि उसे सिर्फ़ अपनी इच्छा की प्राप्ति के लिए ले
ली जाती है। हवस की भूक इतनी
शिद्दत क्यूँ अख्तियार कर लेती है कि अपनी खुद की माँ, बहन या बेटी नज़र नहीं आती
है। आखिर किसी लड़की
या औरत की ज़िन्दगी पर खुद उसका कुछ अधिकार है कि नहीं। एक लड़की माँ की कोख से बाहर
आने के लिए लड़े। उस के बाद
शिक्षा के लिए संघर्ष करे। फिर किसी के भी साथ शादी कर दिए जाने के बाद पूरा जीवन
अपने आप से लड़ाई करती फिरे। घुट घुट कर जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर हो जाये। घर से बाहर
निकलने के लिए हजारों मुश्किलें सामने आती हैं। किसी मनचले की एक छोटी
सी नादानी पूरे जीवन को तहस नहस करने के लिए काफी है। माँ बाप की, घर परिवार की, ससुराल की और पुरे समाज
की इज्ज़त की ज़िम्मेदारी एक औरत के कंधे पर डाली जाती है। परुषों को बिना नकेल के
खुला छोड़ दिया जाता है। वो कुछ भी करें उस से घर परिवार या समाज की मान मर्यादा को
कोई ठेस नहीं पहुँचती। धिक्कार है ऐसी सोच और ऐसे समाज पर जो न तो महिलाओं को उनका
सम्मान दे सकता और न ही अधिकार बस सिर्फ लेना जानता है। उस का मान, सम्मान,
अधिकार, इज्ज़त, आबरू, सपने, यहाँ तक की उस का जीवन भी।
यूँ तो रोज़ अख़बार की काली स्याही समाज के बे जान ढांचे की
कहानियां सुनाती हैं। हर रोज़
ही किसी बेटी का सपना, किसी बहन का अधिकार तो किसी माँ का आंचल हवा में उड़ता है।
इस तरह महिलाओं के शोषण और तिरस्कार की यह परंपरा चली आ रही है। समाज के इस किताब
के काले पन्नों की एक कहानी मुझे हर रोज़ झिन्झोरती है। रोज़ जिस्म के साथ रूह
कांपती है जब मुझे उस की याद आती है। यह दर्द एक सच्ची घटना का
है जो मेरे एक खास और क़रीबी दोस्त की बहन के साथ घटी है। जिस की उमर सिर्फ 9 साल
की है। समाज के बिगड़े
रीति रिवाज और बे जान परम्पराओं से लड़ कर माँ बाप ने उसे पढ़ाने के लिए स्कूल भेजा। ट्युशन लगवाया। सब कुछ अच्छा चल रहा था। लोगों में एक हौसला था। दूसरों घरों में
बेटिओं के लिए एक उदाहरण बनती जा रही थी। बिहार के एक छोटे से गावं का यह माहौल
देख कर लोग जागरूक होने लगे थे।
मिडल क्लास मुस्लिम परिवार
की इस बेटी को घर परिवार और पड़ोस के साथ स्कूल में भी बड़ा स्नेह मिलता था। घर की लाडली बेटी थी। सब को उस से लगाव था
पढाई के साथ काम काज में भी मान लगाती थी। माँ बाप के साथ अपने भाई बहनों की भी लाडली थी। किसी से कोई झगड़ा या
मनमुटाव नहीं था। माँ बाप ने उसे उस की
इच्छा के अनुसार पढ़ाने की ठान चुके थे। मेरी बेटी पढ़ेगी, आगे बढ़ेगी, माँ बाप और
देश का नाम रौशन करेगी, उस की माँ अपनी बेटी के लिए ऐसे सपने देख रही थी। उस के
भाई ने भी अपनी बहन को गावं के बाद अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए अभी से तयारी
करने लगे थे। सब ने उस बेटी के सपनों से अपने आप को जोड़ लिया था। उस अकेली बेटी की
शराफत के चलते परिवार के दूसरों लोगों ने भी अपनी बेटिओं को स्कूल भेजना शुरू कर
दिया था। उसे लेकिन यह नहीं मालूम था कि एक दिन उस की यह तहज़ीब और
शराफत खुद उसी की दुश्मन बन जाएगी। इंसानों की बस्ती और इंसानों की भेस में जब से जानवर बसने
लगे हैं शरीफ इंसानों की ज़िन्दगी मुश्किल हो गई है। एक दिन कोचिंग सेंटर से
लौटते वक़्त मोहल्ले ही के एक लड़के ने हाथ पकड़ने की कोशिश की। लड़की के वही किया जो एक
शरीफ लड़की को करना चाहिए था। उसने हाथ झटक कर तेज़ी से घर का रास्ता लिया और घर आ कर
सारा क़िस्सा घर वालों को कह सुनाया।
घर वालों ने लड़के की इस नादानी पर उस के घर वालों को खबर
करना उचित समझा। लेकिन यहाँ तो
खून ही ख़राब निकला। बच्चे को उस की
नादानी पर डांटने फटकारने की जगह खुद लड़की वालों से उलझ गए। हाथा पाई की नौबत आ गई। घर के बड़े बूढों ने बीच
बचाव किया। मामले को वहीँ रफा दफा
किया। लड़की के घर वाले निसंकोच थे। दूसरे दिन बच्ची अपने घर
में बाहरी दरवाज़े से लगे एक कमरे में सो रही थी। आम तौर पर देहात में
बाहरी दरवाज़े दिन में बंद नहीं होते। किसी भी चीज़ का डर खौफ़ भी नहीं था तो दरवाज़ा बाहर का खुला
था। वही मनचला लड़का
घनी दोपहर को चुपके से घर में घुसता है। सो रही 9 साल की मासूम लड़की पर तेजाब डाल देता है।.....
लड़की तेज़ से चीख़ मार कर उठती है। घर वाले इकठ्ठा होते है। किसी को कुछ भी समझ नहीं
आ रहा था। जल्दी से करीब
के अस्पताल ले जाया गया। उसकी एक बहन ने
चेहरे पर थोडा पानी का छींटा मर दिया था जिस की वजह से चेहरे से थोडा तेजाब धुल
गया था लेकिन बायीं तरफ का पूरा जिस्म सर से ले कर पैर तक जल रहा था। दूसरे दिन जब हालत
बिगड़ते चले गए तो उसे तुरन्त दिल्ली के अपोलो अस्पताल में दाखिल कर दिया गया। यह जून के पहले हफ्ते का वाक़या है। तब से वो लड़की अस्पताल
में अपने आप से लड़ रही है। उस लड़की आंखे एक ही सवाल करती हैं। एक सवाल जो आँखों में
आंसू की जगह खून भर देता है। मेरी गलती क्या थी? एक देहात में पैदा हुई वहीँ पली बढ़ी 9
साल की मासूम लड़की आखिर क्या करती? उस ने वही किया जो उसे घर वालों ने और इस समाज
ने सिखाया और पढाया था। हर हाल में अपनी
इज्ज़त की हिफाज़त करनी है। इस तरह के
हादसों का शिकार लड़कियां आज समाज से भी सवाल करती हैं कि अगर अपनी इज्ज़त का सौदा
भी कर ले तो भी यह समाज उसे नहीं अपनाता और अगर उसे बचाने के लिए लडती है तो भी
उसे सज़ा मिलती है। आखिर करे तो
क्या करे? लेकिन इन दरिंदों के साथ समाज क्या करता है? उन्हें प्रताड़ित क्यूँ नहीं
करता है? उन्हें सज़ा क्यूँ नहीं देता है? क्यूंकि वो पुरुष हैं?
पिछले तीन महीने से वो लड़की जल रही है। सिर्फ तेजाब से नहीं जल
रही है। समाज के रवैये
से जल रही है। नौजवानों के
अन्दर पनप रही जानवरों की सोच से जल रही है। सिर्फ वो लड़की ही नहीं जल रही है। उस का पूरा परिवार जल
रहा है। हर वो लड़की जल रही है जो
समाज में खड़े हो कर जीना चाहती है। जो पढना चाहती है। जो हर ज़ुल्म और अत्याचार के
बाद भी परिवार की मान मर्यादा को बचाती है। इस समाज और खानदान की मान मर्यादा को
बचाने के लिए अपने सपने बेच देती है। अपना बचपन बेचती है। अपने अरमानों का गला घोट
देती है। खुद की इज्ज़त और आत्म सम्मान को दावं पर लगा देती है। पिछले तीन
महीनों से पूरा परिवार ठीक से सो नहीं पाया है। उस का एक नौजवान भाई जब
भी अपनी बहन को देखता हैं उस से ऑंखें नहीं मिला पाता है। उसकी मासूम आँखों में
सूखे हुए सफ़ेद आंसू भाई को बेचैन कर देती हैं। एक तरफ बहन को दिलासा
देता हैं दूसरी तरफ हर लम्हा अपने आप को सज़ा देता है। आज उस के सामने इस
दुनिया का अजीब सा नक्शा है। हर आदमी उसे बुरा लगता है। उस मुजरिम लड़के के ख़िलाफ़
FIR हो चुका है। उसे जेल भी हो
गई है। उस का साथ देने
वाले परिवार भी जेल गए। लेकिन महीने के
बाद ही उन का एक एक कर के जेल से वापस आना शुरू हो गया।
हर एक आदमी के जेल से छूटने पर ऐसा लगता है मानो यह छूटने
वाले उस पीड़ित लड़की और उस के भाई से कह रहे हों। मेरी बात न मानने का
अंजाम यही है। यह बात सिर्फ उस
लड़की के लिए नहीं बल्कि हर लड़की के लिए हैं जो अपनी इज्ज़त बचाने की कोशिश करेगी। यह पुरुष प्रधान समाज का
फ़ैसला है। लड़की सिर्फ हवस
की प्यास बुझाने के लिए पैदा की गई है। उस अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से जीने का कोई हक़ नहीं है। वो सिर्फ पुरुषों के
एंटरटेनमेंट के लिए हैं। यह आज़ादी, बराबर
का अधिकार, स्त्री शसक्तीकरण, महिला अधिकार, आयोग और आन्दोलन सब बेकार हो गए हैं। सब धोका और छल है। इस के पीछे अपनी ही
इच्छा पूर्ति मकसद समझ में आ रही है। मुजरिम की हर मुस्कुराती सांसे एक तीर चलाती हैं। जो तरफ से वार करती है। उस तीर की सनसनाती हुई
आवाज़ यही कहती है हम तो एक एक करके ऐसे ही जुर्म करते रहेंगे जिस लड़की ने भी हमारी
बात न मानी उस का यही हाल होगा कोई भी कानून हमारा कुछ नहीं कर सकता।
हमारी सरकार की बेबसी भी पीड़ितों के ज़ख्मों पर मरहम की
बजाये तमाचे का काम कर रही है। उस के पास कोई ठोस कानून नज़र नहीं आ रहा है। जिससे न सिर्फ मुजरिम को
कड़ा सबक मिले बल्कि ऐसे जुर्म की सोच रखने वालों के लिए भी एक सीख हो। कोई भी शख्स ऐसे जुर्म
के बारे में सोच भी न सके। उस पीड़ित लड़की के साथ क्या इंसाफ किया जा सकेगा? क्या उसे
उसकी मुस्कुराती ज़िन्दगी वापस मिला जाएगी? क्या ज़िन्दगी भर वो इस दर्द से निकल पाएगी। आज के आधुनिक दौर में
उसके जिस्म के घाव तो भर जायेंगे लेकिन उसकी आत्मा पर लगे ज़ख्म क्या भर पाएंगे?
आखिर इस जहन्नम बन चुकी जन्दगी का ज़िम्मेदार कौन है? मजबूर और बेबस सरकारें? बेरुखा
और बेदर्द पुरुष प्रधान समाज या फिर इंसानों के भेस में जानवर? ज़िम्मेदार जो भी हो
उस के साथ क्या किया जायेगा? क्या उसे उस के गुनाहों की सज़ा मिलेगी ?
आज रोज़ाना सैकड़ों बेटियां अपनी इज्ज़त खो रही हैं। माओं का आंचल हवा में
उछाला जा रहा रहा है। 3 साल की मासूम
बेटी से लेकर 70 साल की वृधा माँ के साथ बलात्कार की घटनाएँ घट रही है। समाज भी देख रहा है। सरकार को भी इस की खबर
है। लेकिन मुजरिमों
की खबर लेने के लिए कोई नहीं। न समाज इंसाफ कर पा रहा है। न ही सरकार इस का इलाज
कर पर रही है। ऐसे हालात में
अगर पीड़ित का भाई या कोई उस का सगा कोई क़दम उठा लेता है तो उस के विरुद्ध सरकार भी
सक्षम है और समाज भी तैयार है। रोज़ाना अपनी बहन की मासूम और मायूस आँखों के देखने के बाद
अगर वो भाई यह चाहता है की जिस दर्द से मेरी बहन गुजरी है उसी दर्द से मुजरिम को
भी गुज़ारना चाहिए तो क्या गलत है। कोई और सज़ा उस संतुष्ट नहीं कर पायेगी। मुजरिम को उस के जुर्मों का अहसास कराया
जाना अत्यन्त आवश्यक है। जब तेजाब की हर बूंद से उसका जिस्म और आत्मा जलेगी और
दर्द और चीख़ से खुद के कान सुनना बंद कर देंगे तब पता चलेगा कि उस का जुर्म कितना
बड़ा था। यह जेल की सलाखें उस के लिए इंसाफ नहीं हैं। मुजरिम नहीं जुर्म को मरना है।
जुर्म सोच बन कर हर गली नुक्कड़ पर मौजूद है। मौके की तलाश में है। लचर क़ानून
उन्हें मौके पर मौके दिए जा रहा है।
जिस दिन तेजाब का बदला
तेजाब होगा। बीच चौराहे पर उस की चीख़ से दूर दूर तक सन्नाटा छा जायेगा। हर मुजरिम
के दिल में पनप रहे जुर्म दम उस के दिल में ही घुट जायेगा। एक की दर्द से यह चीख़
सैकड़ों को जुर्म करने से रोक देंगी और सैकड़ों बेटिओं का सपना जलने से बाख जायेगा।
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