मुसलमानों का आपसी बिखराव: धार्मिक या व्यक्तिगत?
अब्दुल मोइद अज़हरी
जहां इस बात से इनकार संभव नहीं कि इस्लाम, मानवता के आधार पर संगठित, संयोग और सहयता का धर्म है, वहीं यह बात भी अफसोस के साथ सबक आमोज़ है कि पूरी दुनिया को एकता की दावत देने वाले मुसलमान खुद कई समुदायों और दलों में बट गए हैं।
सुन्नी, शिया और वहाबी में बंटा हुआ कलमा पढ़ने वाला मुसलमान इस कदर एक दूसरे का विरोधी हो गया है कि तीनों ही एक दूसरे को काफिर कहने और करने पर तुले हुए हैं। इसी उथल-पुथल ने मुसलमानों के शान व सम्मान को बिखेर कर रख दिया है।
आज मुसलमानों की जो हालत है वह किसी से ढकी छुपी नहीं। पूरी मानवता/इंसानियत के प्रति प्रार्थना, सेवा करने वाले शुभचिंतक मुसलमान, फ़िरक़ा परस्ती का शिकार होते हा रहे है। इस्लामी शिक्षा ,परंपरा और नैतिकता (morality) एक पुराने इतिहास बनकर रह गए हैं। जिन नियमों के पालन ने मुसलमानों को दुनिया में नाम दिया, शोहरत दी, इज्ज़त का उरूज बख्शा था आज वही नियम खुद मुसलमानों के यहाँ अस्वीकार्य हो गए हैं। आज का हर संजीदा मुसलमान एक इस गंभीर समस्या का सम्पूर्ण समाधान चाहता है ।
ईमान व कुफ्र के दरमियान स्पष्ट अर्थ, आसान परिभाषा की मांग करता है। या तो आदमी मुसलमान है या नहीं है। मुसलमान है तो अच्छाई और बुराई अपनाने के अख्तियार पर उस कि इस्लाह जाए। अगर मुसलमान नहीं तो इससे इस्लामी मामलों में बहस करने, मुनाज़रा और किताबों के ज़रिए जिहाद करने की क्या जरूरत है। पिछले कुछ दशकों से एक ही कलमा पढ़ने वालों के बीच गठबंधन, इत्तेहाद की कोशिशें की जा रही हैं। लेकिन संभावनाएं कम से कम होती जा रही हैं। जब कि कुरान भी कहता है ऐसी बात पर एकजुट हो जाओ जो (common) सामान्य साधारण हों।
यूं तो सामाजिक और घरेलू गठबंधन में हम जी रहे हैं। लेकिन आपसी मतभेद कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं। मुसलमानो के आपसी गठबंधन के बारे में सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि सभी इस मतभेद को शरीयत और आस्था के आधार पर समझते हैं। लेकिन कोई भी इस मुद्दे को गंभीरता से समझने को तैयार नहीं। सभी का अपना अहंकार सामने आ जाता है। गठबंधन के सभी प्रयास मात्र ख़ाकों और मनसुबों में ही बंद हो जाते हैं। मुसलमानो के साथ पहले दिन से ही यह समस्या रही है कि कुछ, मुनाफिक, बहरूपियों और धूर्त लोगों ने धर्म के नाम पर धोखा देने की कोशिश की है। आज तक वो प्रक्रिया चल रही है। इसी वजह से इतने मतभेद जीवन में आ रहे हैं। मतभेद को बढ़ावा देने में ज़्यादा पात्र अहंकार का रहा है। हाँ इस बात से इनकार नहीं है कि एक बहरूप मुस्लिम (नाम का) ने दुसरे मुस्लिम के धार्मिक जज़्बात को ठेस पहुंचाई है। एक साज़िश में फँस कर ऐसी बातें कही, लिखी और बोली हैं कि जिस से भेद होना स्वाभाविक है। इन लोगों ने हमेशा राजनैतिक उद्देश्यों से ऐसी वारदात को अंजाम देते रहे हैं जिस से समुदाय में बिखराव हो, आपसी बटवारा हो। दूसरों को इस का फायदा हो।
लेकिन सूफीवाद शिक्षा, तालीम और उदारवादी तरबियत ने हमेशा इस पाखंड, मुनाफिकत को टखनों के बल गिराया और शिकश्त दी है। कट्टरवादी सोंच और कट्टरपंथी विचार धारा के विरुद्ध सूफीवाद का सहारा लिया गया। एक सोंच ही दुसरी सोंच को मार सकती है। सूफीवाद के विरुद्ध ही यह उग्र विचार पैदा किये गए थे। लेकिन बाद में दवाओं में मिलावट ने कट्टर सोंच के विरुद्ध भी कट्टरता का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। दोनों ही अपने मार्ग से हट गए। हद तो यह है कि जो भी मुद्दे को सुलझाने की कोशिश की वह खुद भी ऊँच नीच के जाल में आ गया।
यानी “मर्ज़ बढ़ता गया जो-जो दवा की है”। ' इसकी एक वजह यह भी है कि जिस घाव को सुई से सिलना था उसमे चाकू और खंजर का इस्तेमाल किया गया और जहां मज़बूती और स्थिरता से खड़े होने की जरूरत थी वहां जुमलों ,बयानबाजी और इलज़ाम से काम लिया गया। आपसी मतभेद को अपनी निजी और व्यक्तिगत असामनता में खूब हवा दी गई। इस्लाम की जो शिक्षा हमारे बड़े बुजुर्गों और सूफियों ने दी है, उस पर अमल होता नजर नहीं आ रहा है। निजी जाती झगड़ो को धार्मिक रंग देकर जनता अवाम को कई भागों में बांट दिया गया।
अपनी कम इल्मी और अक्षमता को छिपाने के लिए भी इस नीति का इस्तेमाल किया गया। किसी के साथ बैठ कर सुलह समझौता की बजाय राजनीतिक बयानबाजी और एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप से काम लिया गया। नतीजा यह निकला कि इस्लाम की सही तस्वीर उनके निजी झगड़ो की धूल में छिपकर रह गई। मूल मतभेद लोग भूल गए। अब तो मतभेद की लड़ाई उफान पर है। प्रतीत होता है मानों सत्ता की लड़ाई है। किसी भी कीमत पर अपने मत सही साबित करना है। इसके लिए कुरान और हदीस के जाइज़ और नाजाइज़ इस्तेमाल करना पड़े तो कोई बात नहीं।
जहां इस बात से इनकार संभव नहीं कि इस्लाम, मानवता के आधार पर संगठित, संयोग और सहयता का धर्म है, वहीं यह बात भी अफसोस के साथ सबक आमोज़ है कि पूरी दुनिया को एकता की दावत देने वाले मुसलमान खुद कई समुदायों और दलों में बट गए हैं।
सुन्नी, शिया और वहाबी में बंटा हुआ कलमा पढ़ने वाला मुसलमान इस कदर एक दूसरे का विरोधी हो गया है कि तीनों ही एक दूसरे को काफिर कहने और करने पर तुले हुए हैं। इसी उथल-पुथल ने मुसलमानों के शान व सम्मान को बिखेर कर रख दिया है।
आज मुसलमानों की जो हालत है वह किसी से ढकी छुपी नहीं। पूरी मानवता/इंसानियत के प्रति प्रार्थना, सेवा करने वाले शुभचिंतक मुसलमान, फ़िरक़ा परस्ती का शिकार होते हा रहे है। इस्लामी शिक्षा ,परंपरा और नैतिकता (morality) एक पुराने इतिहास बनकर रह गए हैं। जिन नियमों के पालन ने मुसलमानों को दुनिया में नाम दिया, शोहरत दी, इज्ज़त का उरूज बख्शा था आज वही नियम खुद मुसलमानों के यहाँ अस्वीकार्य हो गए हैं। आज का हर संजीदा मुसलमान एक इस गंभीर समस्या का सम्पूर्ण समाधान चाहता है ।
ईमान व कुफ्र के दरमियान स्पष्ट अर्थ, आसान परिभाषा की मांग करता है। या तो आदमी मुसलमान है या नहीं है। मुसलमान है तो अच्छाई और बुराई अपनाने के अख्तियार पर उस कि इस्लाह जाए। अगर मुसलमान नहीं तो इससे इस्लामी मामलों में बहस करने, मुनाज़रा और किताबों के ज़रिए जिहाद करने की क्या जरूरत है। पिछले कुछ दशकों से एक ही कलमा पढ़ने वालों के बीच गठबंधन, इत्तेहाद की कोशिशें की जा रही हैं। लेकिन संभावनाएं कम से कम होती जा रही हैं। जब कि कुरान भी कहता है ऐसी बात पर एकजुट हो जाओ जो (common) सामान्य साधारण हों।
यूं तो सामाजिक और घरेलू गठबंधन में हम जी रहे हैं। लेकिन आपसी मतभेद कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं। मुसलमानो के आपसी गठबंधन के बारे में सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि सभी इस मतभेद को शरीयत और आस्था के आधार पर समझते हैं। लेकिन कोई भी इस मुद्दे को गंभीरता से समझने को तैयार नहीं। सभी का अपना अहंकार सामने आ जाता है। गठबंधन के सभी प्रयास मात्र ख़ाकों और मनसुबों में ही बंद हो जाते हैं। मुसलमानो के साथ पहले दिन से ही यह समस्या रही है कि कुछ, मुनाफिक, बहरूपियों और धूर्त लोगों ने धर्म के नाम पर धोखा देने की कोशिश की है। आज तक वो प्रक्रिया चल रही है। इसी वजह से इतने मतभेद जीवन में आ रहे हैं। मतभेद को बढ़ावा देने में ज़्यादा पात्र अहंकार का रहा है। हाँ इस बात से इनकार नहीं है कि एक बहरूप मुस्लिम (नाम का) ने दुसरे मुस्लिम के धार्मिक जज़्बात को ठेस पहुंचाई है। एक साज़िश में फँस कर ऐसी बातें कही, लिखी और बोली हैं कि जिस से भेद होना स्वाभाविक है। इन लोगों ने हमेशा राजनैतिक उद्देश्यों से ऐसी वारदात को अंजाम देते रहे हैं जिस से समुदाय में बिखराव हो, आपसी बटवारा हो। दूसरों को इस का फायदा हो।
लेकिन सूफीवाद शिक्षा, तालीम और उदारवादी तरबियत ने हमेशा इस पाखंड, मुनाफिकत को टखनों के बल गिराया और शिकश्त दी है। कट्टरवादी सोंच और कट्टरपंथी विचार धारा के विरुद्ध सूफीवाद का सहारा लिया गया। एक सोंच ही दुसरी सोंच को मार सकती है। सूफीवाद के विरुद्ध ही यह उग्र विचार पैदा किये गए थे। लेकिन बाद में दवाओं में मिलावट ने कट्टर सोंच के विरुद्ध भी कट्टरता का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। दोनों ही अपने मार्ग से हट गए। हद तो यह है कि जो भी मुद्दे को सुलझाने की कोशिश की वह खुद भी ऊँच नीच के जाल में आ गया।
यानी “मर्ज़ बढ़ता गया जो-जो दवा की है”। ' इसकी एक वजह यह भी है कि जिस घाव को सुई से सिलना था उसमे चाकू और खंजर का इस्तेमाल किया गया और जहां मज़बूती और स्थिरता से खड़े होने की जरूरत थी वहां जुमलों ,बयानबाजी और इलज़ाम से काम लिया गया। आपसी मतभेद को अपनी निजी और व्यक्तिगत असामनता में खूब हवा दी गई। इस्लाम की जो शिक्षा हमारे बड़े बुजुर्गों और सूफियों ने दी है, उस पर अमल होता नजर नहीं आ रहा है। निजी जाती झगड़ो को धार्मिक रंग देकर जनता अवाम को कई भागों में बांट दिया गया।
अपनी कम इल्मी और अक्षमता को छिपाने के लिए भी इस नीति का इस्तेमाल किया गया। किसी के साथ बैठ कर सुलह समझौता की बजाय राजनीतिक बयानबाजी और एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप से काम लिया गया। नतीजा यह निकला कि इस्लाम की सही तस्वीर उनके निजी झगड़ो की धूल में छिपकर रह गई। मूल मतभेद लोग भूल गए। अब तो मतभेद की लड़ाई उफान पर है। प्रतीत होता है मानों सत्ता की लड़ाई है। किसी भी कीमत पर अपने मत सही साबित करना है। इसके लिए कुरान और हदीस के जाइज़ और नाजाइज़ इस्तेमाल करना पड़े तो कोई बात नहीं।
क़ुरान व हदीस की निजी और निराधार व्याख्या ने इन परिस्थितियों को को आग लगाने का कम किया। कई ऐसे मतभेद हैं जिनमें केवल गलतफहमी ही दूरियां बढ़ा रही हैं। कोई भी ज़िम्मेदार इस बात को समझ कर उसका समाधान करने को तैयार नहीं। शायद उन्हें लगता है कि ऐसा करने पर मार्किट में उनकी महत्वता में कमी आ जाएगी। इसलिए इस तरह की दूरियों को वह खुद बनाए रखना चाहते हैं।
एक विडंबना यह भी है कि विभिन्न
समुदायों में बंटे हुए यह लोग भारत में अपने आप चाहे जिस पंथ और फिरका से जोड़ लें
बाहर देशों में जाकर अक्सर बोली और मत बदल जाता है। सऊदी और उनके हितैषी देशों में
सभी केवल मुसलमान होते हैं। या जो लोग सऊदी विचार धारा को मानते हैं वहां अपनी इस
फ़िक्र पर फख्र करते हैं जिस के चलते उन्हें इनाम से नवाज़ा जाता है।
लेकिन इसके अलावा सूफी देशों में सभी सूफी होते हैं। भारत के सऊदी वफादार वहाबी भी जब सऊदी के अलावा तुर्की और चेचन्या जैसे सूफी देशों में जाते हैं तो वह अपने आप को पक्का सूफी हैं। एक से अधिक उदाहरण ऐसे हैं जहां सूफी और सूफीवाद से इनकार करने वाले अपने आपको सूफी बताकर लोकप्रियता और प्रतिष्ठा हासिल किए हुए हैं। जब स्थिति इस तरह की हों कैसे विश्वास किया जाए जो भी आपसी मतभेद हैं इनकी वजह दीन और अक़ाएद हैं।
अहले सुन्नत से संबंध रखने वालों का भी यही हाल है। वह खुद भी एक बात पर सहमत नहीं हैं। एक दूसरे को कुफ्र व गुमराही के अंधेरे घर में कैद करने की होड़ में लगे हुए हैं। जो जितना बड़ा ठेकेदार है, वह उतना ही बड़ा कारखाना कुफ्र और गुस्ताख़ी का लेकर बैठा है। उसकी हैबत इतनी है कि किसी को भी इस के खिलाफ सच और हक बोलने की हिम्मत नहीं होती। ऐसा नहीं कि बोलने से उसे जान-माल का खतरा है। वैसे माल का ही खतरा है। प्रोग्राम नहीं मिलेंगे। चंदा नहीं होगा। चंदा, पैसा, दावत ,तबलीग, इमामत व खिताबत पर ज़िन्दगी जीवन बसर करने वालों की रोज़ी रोटी का मसला जुड़ा होता है। हालाँकि यही लोग अपनी तकरीरों में कहते हैं कि रिज्क तो सब का तै है।
निजी फायदा के लिए दीन में समझौता किया जा सकता है,,, हाँ जिस ग्रुप से रिज़्क़ को मंसूब कर रखा है अगर इस के विरुद्ध कोई मामला है तो इस में ईमान दांव पर लगा देंगे। इसके लिए कुरान हदीस में जबरन दखल अंदाज़ी तक कर ली जाएगी। ताकि आका और ठेकेदार खुश हो जाएं, विशेष नज़दीकी मिल जाये और कारोबार में भी बढ़ोतरी हो जाये। ऐसे लोगों का एक बाजार है। कुछ ठेकेदार हैं जो अपना अपना ग्रुप तैयार कर रहे हैं ।
कोई खुश करके तो कोई डरा धमकाकर। अलग तरीके और अलग शैली है। हां धर्म से किसी को कोई दिलचस्पी नहीं। जिसे धर्म से लगाव हो जाए, शरीअत की खातिर उसकी गैरत जाग जाए तो सब ठेकेदार इसके खिलाफ एकजुट हो जाते हैं। जिसके नज़दीक किसी वहाबी से हाथ मिलाना, साथ उठना बैठना, खाना-पीना, इसके पीछे नमाज़ पढ़ना, यहां तक कि किसी भी तरह के मामलात रखना सही नहीं है। लेकिन खुद उनके साथ ग़ुस्ल ए खाना ए काबा में भागीदारी भी करें। उनकी तरफ से हज और उमरा भी करें। उनकी दावत को स्वीकार भी करें।
आज के इस दौर में कोई भी व्यक्ति किसी व्यक्ति से बिना किसी उद्देश्य के न मिलता है और न ही इससे एकता और मतभेद रखता है। यह मनुष्य की अपनी भावना तो हो सकती है लेकिन इसे धर्म दीन का नाम देना शैतानियत के सिवा कुछ भी नहीं। दिखावा, कपट और पाखंड में , सच्चाई, ईमानदारी का हनन हो रहा है। ऐसे में हम क्या करें? काम करने वालों को किसी भी ठेकेदार से अलग होकर काम करना होगा। जनता को समझना होगा कि जिसे भी कार्य से मतभेद हो वह धर्म के दुश्मन है।
उसे क़ौम मुस्लिम और इस्लाम से कोई प्रतिबद्धता नहीं। वह व्यापारी है जो धर्म के व्यापार पर आमादा है। इस का संबंध चाहे जिस मसलक या फिरके से हो। ऐसे किसी भी एकाधिकार को ताक पर रखकर तामीर और तरक्की की राहें हमवार करनी होंगी। किसी ऐसी लकीर के फकीर होने से बचें। हर उस लकीर से अपने आप को अलग करना होगा जिसे व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए खींचा गया हो।
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Hazrat apne jo last me example diya wo janab azahri miya ka hai aisa nahj hai hm log apko pasand nhi karte or aisa bhi nhi azhari miya ko pasand nhi karte lekin agar bat wahbiyat ki aati hai to aap ye bataye huzur ko mahaz apne bhai ka darja dene wala wahabi huzur ke ilm ki tulna mazallah deobandi or unki be haya kattarwad foj jo share aam islam ke nam par khun bahati hai be gunahon ka isi samaj ke kuchh thekedar istama nam ki factory chalate hain inke is napak program se ap konsa faiz hasil kar rahe hain kbi kbi hame majburi me wo sab karna padta hai jo hm nhi chahte bat qabatullah ke gusl ki ap kar rahe h badi kismat wala hot wo shakha jiae ye sa aadat hasil hoti hai or ap jante ho arab puri trah wahabiat soch rakhata hai to kya hm hj karna chhor den ya kabatullah ka tawaf chhor de ye exAmpl hzrt shi nhi h or agr bt kren sufiwad ki abi tk kisi sufu ne hazarin musalmano ke katil is trah izzT nhi bakshi jaisi ap ne di ha agr wo iman le aata to hamara bhai tha warna wo katil hai zalim hai or hamare liye sirf kafir hai allah apko tarakki de lekin bat ahle sunnat ki hai isliyd majburi me bolna pada pehle bhi aala hazrat ke zamane me ek aisa dor tha jab in behude mullaon ne mere aaka ki shan me gustakhi ki ti tb mere aala hazrat ne unko dhul chatai aj fir ye deen ke nam par pakahand kar rahe hai fir aala hazrat ke sher inko dhul chatayenge insha allah or thoda bahut tassub to har har wakt hi rahta hai kom ke bich isme koi shak nahi lekin tassub ko adhar banake insha allah hamare aqeede ko tod nhi sakta ha ye mana ahle sunnat ke molana hazrat peso par. Bhagte hain
ReplyDeleteLekin fir bhi pakahnd ki factory nahi cahalate allah hme or apko or sari ummat ko apas me muhabbT se rahne wala bana de or ahle shnnat ka parcham hamesha lahrata rahe ameen
talib bhai mere article ka matlab kisi par tanqid nahin balki kuchh sacchaiyon ka samne lana hai. aaj qaum ko zarurat hai us par zyada zor dene ki zarurat hai. ek hi lakeer par kab tak chalte rahenge. yahan kuchh misalen di thin ki waqt padne par jab hikmat w zarurat ka istaimal kar liya jata hai to qaum ko tameer o tarqqi se ham kinar karne ke lie aise qadam kyun nahin uthaye jate.
ReplyDeleteany way thank for your comment. its an opinion not faith.