राजनैतिक आतंकवाद के बल पर धर्म का राजनीतिकरण
अब्दुल मोइद अजहरी
जाति,
धर्म, नस्ल और रंग के आधार पर होने वाली राजनीति ने आज धर्म की परिभाषा ही बदल
डाली जो धर्म मानव की रक्षा मानवता की सुरक्षा के लिए आया है उसका दुरूपयोग मानव
के विनाश और मानवता के सर्वनाश में हो रहा है जो धर्म देश और समाज के ज़िम्मेदारों
के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है।
आज धर्म
के नाम पर चन्द व्यक्तियों और संगठनों ने धार्मिक ग्रथों और निर्देशों की गलत एवं
निराधार व्याख्या करके जहां एक तरफ धर्म एवं धार्मिक शिक्षाओं, मर्यादाओं और उसकी
छवि को खराब किया
वहीँ दूसरी ओर उसका अपमान करके हमारी युवा
पीढ़ी को गुमराह करने की कोशिश भी की है।
कहीं
धर्म के नाम पर माथे पर कलम-ए-शहादत पट्टी बांधकर, झंडे पर कलम-ए-तौहीद लिखकर खुद को बम से उड़ाकर,
मस्जिदों पर बुलडोजर चलाकर और बेगुनाहों का खून बहाकर मज़हब को बदनाम कर रहे हैं।
कहीं
धर्म के नाम पर पूरी बस्ती को आग लगा कर, औरतों की इज्ज़त लूट कर, बच्चो को जिंदा
जलाकर और मर्दों को त्रिशूल की नोक से ज़बह कर के धर्म की सेवा, धर्म का पालन और
धर्म की रक्षा का नाम दिया जाता।
जिहाद
और धर्म युद्ध की ऐसी व्याख्या की कल्पना किसी भी धर्म ने नही की होगी। जब वेदों
ने किसी भी जीव जंतु को मारना हत्या और पाप बताया है और कुरान एक बेगुनाह इन्सान
का क़त्ल पूरी इंसानियत का क़त्ल बताता है तो भला किसी व्यक्ति को चाहे तलवार से
मारा जाये या त्रिशूल से वो जिहाद या धर्म युद्ध कैसे हो सकता है?
पैग़म्बर
साहब ने मनुष्यों पर हो रहे अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध जिहाद किया था। अमन और
इंसाफ कायम करने के लिए हथियार उठाने की अनुमति दी थी। हथियार उठाने से पहले
उन्हों ने कड़े निर्देश दिए थे कि किसी निहत्थे, बेगुनाह, बीमार, बच्चे, औरत और
बूढ़े पर वार न करना। वृक्षों, खेतियों, और हरियालियों को बर्बाद न करना। पशु
पक्षियों और दूसरे जानवरों पर ज़ुल्म न करना। किसी भी धार्मिक व्यक्ति या धार्मिक
स्थल को कोई क्षति न पहुँचाना और याद रहे यह जिहाद अपनी रक्षा और सुरक्षा के लिए
है। जब तक कोई हमला न करे हमले में पहल मत करना।
तीर
और तलवार का प्रयोग तो मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम ने भी किया था और युद्ध के लिए
श्री कृष्ण जी ने भी न सिर्फ प्रेरित किया बल्कि खुद महाभारत में भाग लिया और दिशा
निर्देश दिया।
कौरवों
और पांडव के बीच जब युद्ध होना निश्चित हो गया तो श्री अर्जुन ने कौरवों पर हमला
करने से मना कर दिया और कहा कि हम अपने ही भाइयों पर हमला कैसे कर सकते हैं तो उस
समय श्री कृष्ण ने समझाया था कि जब अधर्म का ग्रहण धर्म के सूरज पर मंडराने लगता
है मानवता को असुरों और राक्षसों ने पूरी तरह से घेर लिया हो तो ऐसे में मानवता की
सुरक्षा के लिए युद्ध लड़ना ज़रूरी हो जाता है। अधर्म का कोई धर्म नहीं होता। वो
किसी का भाई, बेटा, सगा या सम्बन्धी नहीं होता है।
जिहाद
और धर्म युद्ध के कुछ नियम और निर्देश होते हैं। आज जिहाद तो है और धर्म युद्ध भी
है लेकिन न उसूल है न दिशा निर्देश हैं। सिर्फ राजनीति और व्यापार है और पूरा मानव
समाज उस का शिकार है।
इस
सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस तरह के सरफिरे लोगों की टोली
जानबूझ कर बनाई जाती है। उस के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं।
साम्प्रदायिक दंगे, अन्याय और अत्याचार प्रमुख हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता
है। एक दूसरे को उत्तेजित करने वाली बयान बाज़ी भी इस का एक हथियार है। जब
अफ़ग़ानिस्तान में रूस ने हमला किया और उस पर क़ब्ज़ा कर लिया तो अमरीका को लगा कि
उसके इलाके में घुसपैठ हो गई है अतः उस ने कुछ बहके हुए और ज़रूरत मंद मुसलमानों का
एक संगठन बनाया जिसे तालिबान कहा जाता है। इस संगठन को रूस के विरुद्ध अमरीका ने
अपना उल्लू सीधा करने के लिए इस्तेमाल किया। तालिबान को लड़ने के लिए मुल्क, मज़हब
और इस्लामी तारीखी परम्पराओं की सुरक्षा के नाम पर उकसाया। उन्हें ट्रेनिंग दी, हथियार
दिए, पैसे दिए। आख़िरकार अमरीका अपने मकसद में कामयाब रहा। उस ने रूस को भगा दिया।
अब तक तालिबानी लड़ाके क्रन्तिकारी थे। वो अपने मुल्क, मज़हब और अपनी तारीख और
सभ्यता को बचने के लिए लड़ रहे थे। इन्ही तालिबानियों को जब यह महसूस होने लगा कि
अमरीका भी हमारे मुल्क मज़हब तारीख और सभ्यता को पूरी तरह ख़राब कर रहा है तो उन्होंने
अपने जिहाद का रुख अमरीका की तरफ कर दिया। अब यही क्रांतिकारी आतंकवादी हो गए। संयुक्त
राष्ट्र में उसके विरुद्ध नाटो फ़ौज भेज कर इन तालिबानियों को खत्म करने की वकालत
शुरू हुई। इंसानी खून रोजाना बहने लगा जो आज तक रुकने का नाम नहीं ले रहा। न जाने
कितने बच्चे यतीम हुए। कितनी औरतें बेवा हो गयीं। न जाने कितने माँ बाप का सहारा
खाक व खून में मिल गया। इंसानी जान व माल का ऐसा नुकसान हुआ कि आज तक उसकी भरपाई
नहीं हो पाई। अफगानिस्तान तबाह हो गया। सिर्फ अफगानिस्तान ही नहीं बर्बाद हुआ उसकी
बर्बादी का असर कई देशों पर पड़ा है।
यह
एक वास्तविकता है कि जंग चाहे जिस देश में भी हो और जिस से भी हो उसका असर कई देशो
पर एक साथ होता है। आज लगभग तमाम खाड़ी देश इस ज़हर का कड़वा घूंट अपने गलों से उतार
रहे हैं। अब तो कईयों को यह ज़हर मीठा लगने लगा है। कई खाड़ी देश इस गृह युद्ध से
अपने अपने देशों की राजनैतिक छवियाँ बनाने और दूसरों की ख़राब करने की घिनौनी
राजनीति में लगे हुए हैं। भूल गए हैं कि यह वो खेल है जिस का अंजाम सिर्फ बर्बादी
है। सिर्फ तबाही है।
जज्बात
में आकर इन सरफिरों ने तलवार और त्रिशूल तो उठा ली लेकिन कभी अंजाम के बारे में
नहीं सोचा।
अब
मुसलमानों को अमरीका क़ुरान सिखा रहा है। इसराइल के नुमायिंदे उन्हें हदीस का मतलब
समझा रहे हैं। जिहाद की तालीम वो लोग दे रहे जिनका पूरा अस्तित्व अत्याचार और खून
की राजनीति में डूबा हुआ है। ऐसे संस्थान खुले हुए हैं जो इस बात की ट्रेनिंग देते
हैं कि किस वक़्त की नमाज़ में कौन सी सूरत पढनी है और जुमे के खुतबे में क्या बयान
करना है।
यही
छेड़छाड़ गीता, रामायण, वेद और पूरण जैसी पवित्र ग्रन्थों के साथ हो रही है। इन
ग्रन्थों में मौजूद शांति और सौहार्द की शिक्षाओं का दुरूपयोग करके एक आम आदमी को धर्म
के नाम पर खूनी बना दिया जाता है।
जो
लोग ऐसे अपराधिक, उत्तेजित और उग्रवादी तत्व तैयार कर रहे हैं वो यह भूल जाते हैं
कि एक बार जब किसी व्यक्ति की अपराधिक सोच बन जाती है तो उसके लिए अपने और पराये
में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। किसी भी मज़हब की तालीम उसकी विचारधारा को बदलने
में असमर्थ हो जाती है। कोई भी मुल्क मज़हब और समुदाय उस से सुरक्षित नहीं रहता
क्यूंकि अब वो सिर्फ अपराधी और आतंकवादी है। उसे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि मकसद हासिल
करने के लिए किस हद तक जाना है। कितने इंसानों का बेजा खून करना है और इस से मुल्क
पर क्या असर पड़ता है।
आज
हम एक दयनीय स्थिति में हैं। हमें इंतज़ार है कि कोई दूत या पैग़म्बर आयेगा और हमें
इस मुसीबत से निकालेगा। हम भूल गए हैं कि ऐसे हालत उन्हों ने पैदा किये हैं या
पैदा होने दिए हैं जिनका काम ही ऐसी परिस्थितियों पर काबू पाना था। अब अगर रखवाले
ही घुसपैठ का प्लान बना लें या प्लान को कामयाब करने में हिस्सेदार हो जाएँ तो भला
इस भूक की मारी जनता का क्या होगा। भारत की जनता जहाँ भूक से मर रही है वहीँ हमारी
राजनैतिक पार्टियाँ इस बात पर चर्चा कर रही हैं कि धर्म पर पाबन्दी लगा दी जाये,
ज्यादा बच्चे पैदा किये जाएँ, अब वक़्त आ गया है देश देश के प्रति अपनी निष्ठा,
ईमानदारी और देश प्रेम को सिद्ध किया जाये और इस के लिए एक नारा लगा जाये। देश का
नौजवान बेरोज़गारी की वजह से अपने आप से नज़रें नहीं मिला पा रहा, अपने पढ़े लिखे
होने पर शर्म महसूस कर रहा है और हमारा सिस्टम यह क़ानून पास करने में पूरी मेहनत
कर रहा है कि भारत में रहने के लिए क्या खाना होगा और क्या नहीं खाना होगा। किसान
आत्महत्याएं करने पर मजबूर हो रहे हैं और हमारे राजनैतिक ज़िम्मेदार एक दूसरे पर
आरोप प्रत्यारोप का खेल खेल रहे हैं।
किसी
भी मुल्क में उसके नागरिक की सबसे पहली, बड़ी और अहम् ज़रूरत सुरक्षा होती है। हमें
अफ़सोस है कि न औरत की इज्ज़त महफूज़ है न एक किसान की जान। सांप्रदायिक दंगों ने एक
इन्सान की जान की कीमत मिटटी के पुतले से भी कम कर दिया है।
ऐसी
परिस्थिति में धर्म के नाम पर राजनीति और सांप्रदायिक दंगों के ज़रिये अपनी राजनीति
को मज़बूत करना ऐसा ज़हर है जो मुल्क को दीमक की तरह खा रहा है। तमाम मुद्दों पर बहस
तो होती है लेकिन उस को कोई हल नहीं निकलता है। हल निकलता है तो उस पर कोई
कार्यवाई नहीं होती है। कार्यवाई की बारी जब आती है तो मुजरिम कोई अपना ही निकल
आता है। फिर उस के लिए शासन, प्रशासन, वकालत और जाँच एजेंसियों का ऐसा बेशर्म तमाशा
होता है कि शैतान भी चक्कर खा जाये और फिर कई बरसों के बाद न्याय के नाम पर एक आम
आदमी के मुंह पर ज़ोरदार तमांचा मिलता है।
अफ़सोस
हमारे यह राजनैतिक हथकंडे आतंकवादियों और उग्रवादियों तक पहुँच गए हैं। वह भी इस
खेल का हिस्सा बनते जा रहे हैं। जंगल में रह कर अगर हमला करेगा तो क्रन्तिकारी
होगा और अगर रेगिस्तान में रहकर वार करेगा तो आतंकवादी। तलवार का प्रयोग करने वाला
अलग श्रेणी में होगा और त्रिशूल से जान लेने वाला अलग वर्ग में होगा। ऐसी मानसिकता
देश को कहाँ ले जा रही है? आखिर मरने वाला बेगुनाह इन्सान ही हैं ना? मुल्क जल रहा
है और हम हैं कि यह पता करने में लगे हैं कि आग दिया से लगी है या चराग़ की शरारत
है।
आज
खाड़ी देशों में पनप रहे चंद सरफिरे गिरोहों की वजह से पूरी दुनिया के मुसलमानों को
आतंकवादी कहने वालों को सोचना चाहिए कि इन नाम जिहादियों के हाथों मरने वाले सब से
ज्यादा मुस्लमान ही हैं। मरने वालों के साथ हमदर्दी की बजाये मारने वाले के
कारनामे को भी मृतक के धर्म से जोड़ कर उसे कई बार मारा जा रहा है।
वो मुस्लमान जिस ने मुल्क
के लिए हमेशा अपने जान व माल की क़ुरबानी दी है आज वो अपनी वफादारी साबित करने के
लिए मजबूर किया जा रहा है। उसकी हालत इतनी दयनीय हो गई है कि एक तरफ खुद मर रहा है
दूसरी तरफ हर जिहादी से अपने रिश्ते न होने का सुबूत भी पेश कर रहा उस के बावजूद
गद्दार और दहशत गर्द भी वही है। यह कैसा न्याय है और कैसी नीति है?
जितना
धन, बल, बुधि और राजनैतिक योग्यता इस साम्प्रदायिकता और बन्दर बाँट में खर्च हो
रही है अगर यही या इस से कम भी हम गरीबी, बेरोज़गारी और अशिक्षा के विरुद्ध प्रयोग करते
तो इस देश की दशा कुछ और ही होती।
देश
को नारों से नहीं विचारों से बदलने की ज़रूरत है। देश को इस दयनीय स्थिति तक
पहुँचाने में सिर्फ राजनितिक व्यापारियों का ही हाथ नहीं बल्कि उन आम लोगों का भी
है जो ख़ामोश रह कर ऐसे देश-दुश्मनों के आत्म विश्वास को बढ़ावा देते हैं।
याद
रहे! हमारी ख़ामोशी न केवल इन दुश्मनों का समर्थन कर रही है बल्कि उन्हें भी हिम्मत
दे रही है जो आतंकवाद या उग्रवाद का किसी न किसी रूप से समर्थन कर रहे हैं। ऐसे
में कम से कम सामाजिक बहिष्कार एक प्राकृतिक कानून है कि समाज से लेकर देश तक जब
कोई व्यक्ति बागी हो जाए तो उसका बहिष्कार आवश्यक हो जाता ताकि इस विद्रोह का असर
बाकी लोगों पर न पड़े।
02-06-2016
अब्दुल
मोईद अज़हरी (अमेठी) 09582859385 abdulmoid07@gmail.com
http://khabarkikhabar.com/archives/2685
राजनैतिक आतंकवाद के बल पर धर्म का राजनीतिकरण
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राजनैतिक आतंकवाद के बल पर धर्म का राजनीतिकरण

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