Wednesday, August 17, 2016

मेरे सपनों का हिंदुस्तान 'A dream of my INDIA'

मेरे सपनों का हिंदुस्तान
[ अब्दुल मोइद अज़हरी ]

जिस तरह ईद से पहले की चाँद रात का एक अलग अर्थ, जश्न और माहौल होता है उसी तरह स्वतंत्रता दिवस से पहले की रात भी करवटों और तरह तरह के अभ्यास में गुज़रती है। 1857 से लेकर 1947 तक का आज़ादी का सफ़र और आज़ादी के बाद का संविधान हमारे देश को एक नई दिशा देता है। 90 साल का सपना था। जिस में बलिदान ही बलिदान है। जाति और धर्म के भेदभाव से परे एक ऐसा सपना जिस के लिए सब कुछ कुर्बान कर देने को मान करे। क़ुरबानी दी गयी। आज आज़ादी का जश्न मनाया गया। देश के उस वीर सपूतों के बलिदान को याद करते करते ऑंखें नाम हो गयीं। मस्तिष्क में एक प्रश्न उत्पन्न हो गया जो अब तक बेचैन किये हुए है। बापू, नेहरु, आजाद ने हमारे लिए एक सपना देखा था। क्या हम ने उसे साकार किया ? उस शहीदों के सपनों का हिंदुस्तान कहाँ है ?
भारत एक मात्र ऐसा देश है जहाँ एक से अधिक धर्म और समुदाय के लोग न सिर्फ एक साथ रहते हैं बल्कि अपने धर्म और आस्था अनुसार उन्हें इबादत का अधिकार है ऐसा देश जहाँ एक साथ मंदिर और शिवालों से पूजा अर्चना के सुर गूंजते हैं मस्जिदों से अज़ान की आवाज़ पर बन्दे कम काज छोड़ कर इबादत के लिए घरों और दुकानों से बहार निकल आते हैं गुरुद्वारों और गिरजा घरों में भी ईश्वर की वंदना की जाती है अपने धर्म और आस्था के प्रचार की पूरी आज़ादी है जाति, धर्म और समुदाय में बटा यह देश विश्व भर में अपनी अनेकता में एकता के लिए विख्यात और प्रसिद्ध है विश्व भर में इस देश की संस्कृति लोगों के आकर्षण का विषय बना हुआ है इस देश के राज्य किसी जाति, धर्म, समुदाय, अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, पिछड़ा वर्ग, दलित और अनुसूचित जाति के आधार पर नहीं बने हैं
भारत का संविधान सभी नागरिकों के लिए एक समान है नवम्बर 1949 को ही संविधान के पहले पन्ने पर यह बात लिख दी गयी कि भारत एक समाजवाद, धर्म निरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य है जहाँ हर नागरिक को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय मिलेगा सोच, विचार, आस्था, धर्म और इबादत की पूरी आज़ादी होगी स्थिति और अवसर में बराबर की भागीदारी होगी राष्ट्र और व्यक्तिगत गरिमा का सम्पूर्ण सम्मान किया जायेगा भारत की अखंडता और भाईचारा को बनाये रखना हर नागरिक की नैतिक ज़िम्मेदारी होगीयह संविधान 26 नवम्बर 1949 को विधान सभा में पेश किया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे लागू किया गयातब से आज तक इस संविधान की रक्षा और सुरक्षा की जा रही है यह संविधान ही है जो तमाम हिन्दुस्तानियों को अलग धर्म, जाति, आस्था और समुदाय के बावजूद एक धागे में पिरोये हुए है
देश को आजाद हुए 70 वर्ष हो गए आज हमें अपनी स्थिति देखने की आवश्यकता है देश का संविधान सुरक्षित है और उस सही उपयोग हो रहा है, इस पर हर नागरिक की नज़र होनी ज़रूरी है क्यूंकि इस संविधान के प्रति हम सभी वचन वद्ध हैं देश के संविधान और उस की गरिमा को बचाने के लिए हर तरह की क़ुरबानी से गुज़रना हर भारतीय पर फर्ज़ है यही देश प्रेम और देश भक्ति है आने वाले 15 अगस्त को पूरा हिंदुस्तान आज़ादी के जश्न में डूबे तो इस बात का अहसास हो कि जिस भारत का सपना 1857 में देखा गया। जिस के लिए हजारों हिन्दुस्तानियों ने अपने लहू का बलिदान दिया 90 साल तक जिस सपने को जान माल इज्ज़त की क़ुरबानी दे कर सजो कर रखा गया था उसका महल अगस्त 1947 में तैयार हुआ फिर उसी सपने का हिंदुस्तान 26 नवम्बर 1950 को सच किया गया
यह वो सपना है जिस के लिए माओं ने बेटों की, बहनों ने भाइयों की और देश ने अपने सपूतों की बड़ी क़ुरबानी दी है यह सपना हमारे लिए और हमारे बाद आने वालों के लिए देखा गया था हमारी ज़िम्मेदारी है की हम देखें कि देश के उन वीर जवानों और सपूतों के सपनों का हिंदुस्तान हम तक कैसे पहुंचा है और हमें कैसे उसे आगे पहुँचाना है आज के हालात देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि उनका सपना सच हुआ है धर्म और समुदाय के बीच बढती हिंसक दूरियां नेहरु, गाँधी और आजाद के सपनों को चूर चूर करती नज़र आ रही हैं जिस अखंडता और अनेकता में एकता के लिए हमारा देश विश्व भर में जाना जाता था आज उस की चादर हवा में उडती नज़र आ रही है न तो बराबरी है और न ही न्याय है न भाईचारा है और न ही किसी की आस्था धर्म की गरिमा का सम्मान है भारत की सफ़ेद धरती पर  राजनीति, न्याय व्यवस्था और सामाजिक रवैये का यही कला सच है
एक तरफ सरकारी तंत्र फेल हो गया दूसरी तरफ समाज मानसिक रूप से बीमार हो गया। समाज का मानसिक स्तर इतना गिर गया है सब से बड़ा मुजरिम खुद समाज मालूम होता है।
हर आदमी सुधर और बदलाव चाहता है। लेकिन खुद कोई न तो प्रयास करना चाहता है और न ही शुरुआत करना चाहता है। सब एक ही समस्या का शिकार हैं। बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? सब एक दूसरे पर इलज़ाम रख कर अपने आप को तसल्ली दे रहे हैं। आज हमारा समाज तीन मुख्य समस्याओं से जूझ रहा है। लोग क्या कहेंगे?, कोई आगे नहीं आता है हम अकेले क्या कर लेंगे? सब लोग तो करते हैं एक हम ही तो ऐसा नहीं कर रहे हैं।
किसी भी समाजी काम को करने के लिए ही यह ख्याल आता है की लोग क्या कहेंगे। अपने फायदा के लिए कभी नहीं सोचते। ऐसा देखा जाता है कि गाड़ी पर बैठे हुए लोग खिड़की से थूक देते हैं या फ़िर किसी ऐसी जगह थूकते या कचड़ा फेंकते जहाँ ऐसा करना मना होता है। जब कोई टोकता है तो हमारा जवाब होता है को सभी तो यही करते हैं। आज तक हमें सह समझ नहीं आया की यह ‘लोग’ कौन होते हैं। यह किस प्रजाति के होते हैं और कहाँ से आते हैं। एक आसान सी बात समझ में नहीं आती है कि इस समाज की शुरुआत ‘मैं’ से होती है। ‘मैं’ के बाद ‘तुम’ और उसके बाद ‘वह’ और लोग होते हैं। हमारा हाल बिलकुल उल्टा है जब हम समाजी बदलाव की बात करते हैं तो उसकी शुरुआत ‘लोग’ से होती है लेकिन जब फायदा लेना हो तो उस में ‘लोग’ तो होते ही नहीं। ‘मैं’ से शुरू होता है और उसी पर ख़त्म भी हो जाता है।
‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता’ यह कहावत हम ने सुनी है। जब भी हम पर कोई ज़िम्मेदारी आती है तो हम यही कहावत सुना देते हैं। जबकि हमें खुद पता होता है कि यह भी कई बार सच हुआ है। इतिहास के पन्ने गवाह हैं। में अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया!!
ऐसी सैकड़ो कहानिया हैं जिन्हों ने इतिहास के माथे पर अपनी कहानी की लकीरें खीँच राखी हैं। एक अकेली सुहास्नी मिस्त्री ने ऐसे बड़े अस्पताल का सपना देख लिया जिस में गरीबों के लिए मुफ्त इलाज हो सके। खुद सहस्नी जी कचड़े से जुटे चप्पल उठा कर बेंचती थी और खुद के बेटे को अनाथ आश्रम में भेज रखा था। गुजरात के सांप्रदायिक हिंसे और भूकंप के बाद लोगों की उम्मीद टूट चुकी थी लेकिन कुछ ऐसे भी लोग थे जिनकी हिम्मत जिंदा थी उन्हें लगता था कि यह मेरा काम है और मुझे ही करना है। प्रज्वला नाम की एक NGO ने देह व्यापार में फँसी महिलाओं और बच्चियों को निकलने की ठान ली। फ़िर तरह के अत्याचार सहने के बावजूद वो कर दिखाया जो हम इस लिए नहीं सोचते की यह अकेले का काम नहीं। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। कोई भी काम पहाड़ खोदने जैसे नहीं होता। बस आप का इरादा पहाड़ जैसा मज़बूत होना चाहिए। दशरथ मांझी की दास्तान उन लोगों के लिए उदाहरण हैं जिन्हें लगता है कि यह पहाड़ खोदने जैसा हैं और पहाड़ तो खोदा नहीं जा सकता। दशरथ मांझी ने अकेले ही अपने मज़बूत इरादे से पहाड़ का सीना भी चीर दिया।
दर असल यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि हम कैसा हिंदुस्तान देखना चाहते हैं। खुद के पक्के मकान बन जाने से फूस की झोपड़ी के असर से बच नहीं सकते। समाज का एक वर्ग अगर पीड़ित है उसे दो वक़्त की रोटी भी अगर मुश्किल से मिलती हैं तो इस का मतलब यह नहीं है कि इस में समाज के दुसरे वर्ग का कोई रोल नहीं। अगर किसी की रिपोर्ट सिर्फ इसलिए नहीं लिखी जाती कि वो गरीब है या किसी बड़े खिलाफ FIR है। एक आदमी अस्पताल की चौखट पर इसलिए दम तोड़ देता है की उस के पास इलाज के पैसे नहीं हैं। खेत के किनारे लगे पेड़ से किसान इस लिए आत्महत्या क्या लेता है कि उस के पास क़र्ज़ चुकाने लिए पूंजी नहीं है। उम्र के जिस पडाव पर हाथों में किताबे होनी चाहिए थीं उस में जूठे बर्तन, सब्जी का थैला, बकरी हांकने के लिए छड़ी, लोगों की गलियां सुनने के लिए कान होते हैं।
आज हर स्तर पर सुधार और बदलाव की आवश्यकता है। शिक्षा हो समाज हो या फ़िर सरकार सब बीमार हो गए हैं। रोटी कपडा और मकान देने में नाकाम सरकारें इस पर गौर करें। समाज अपने रवैये के बारे में मंथन करें। अपनी महत्वता को पहचाने। अपनी ताक़त का प्रयोग करें। एक दूसरे का सहारा बनें।
क्या यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि भ्रष्टाचार, अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले खुद किसी भी तरह के मामले में लिप्त नहीं हैं। हमारे देश की राजनैतिक श्रेणी में ऐसे सैकड़ों लोग हैं जो अपने जुर्मों को छुपाने या उस से बचने के लिए राजनीति में आ गए। हमारी राजनैतिक प्रणाली ने न सिर्फ उन्हें गोद ले लिया बल्कि चोर उचक्कों बदमाशों और क़ातिलों को मसीहा बना दिया। किसी बहार के शैतान से लड़ने से पहले अन्दर के शैतान को हराना बहुत ज़रूरी है। भ्रष्टाचार हमारी रगों का खून बनता जा रहा है। अगर वाकई देश को हर तरह के भरष्टाचार से मुक्त देखना और बापू, नेहरु और आजाद के सपनों को साकार करना है तो बच्चों की A,B,C,D में भ्रष्टाचार के विरुद्ध नफरत का पाठ पढ़ना होगा। खुद की गलती को स्वीकार करना होगा। हमें खुद सुधारना होगा। हम सुधरे जग सुधरेगा।

Abdul Moid Azhari (Amethi) Contact: 9582859385 Email: abdulmoid07@gmail.com

No comments:

Post a Comment