वही लोग धर्म का दुरूपयोग कर रहे हैं जिन्हों ने धर्म को बिना अध्यात्म के समझा है
अब्दुल मोइद अज़हरी
पिछले महीने फिल्म जगत के जाने अभिनेता इरफ़ान खान धार्मिंक मामलों में टिप्पड़ी कर के कई मुस्लिम धर्म गुरुओं के कटाक्ष भरे सवालों का निशाना बन गए हैं। कई टीवी चैनल पर इस मुद्दे को लेकर बहस भी हुई और लोगों ने अपनी अपनी राय रख कर मुद्दे को विस्तरित कर के समझाने की कोशिश की। इस मुद्दे को लेकर हुई तमाम बहस का दुखद भाग यह था कि कोई भी मुद्दे को लेकर चिंतित, गंभीर नहीं था। किसी भी ने मुद्दे को लेकर सही बात लोगों तक पहुंचाने की कोशिश नहीं की। बहस का खुलासा यही नज़र आया कि इस्लामी मामलात में अपनी राय रखने वाले इरफ़ान खान कौन होते हैं इस्लामी मामलात में अपनी राय रखने वाले या उस पर किसी भी तरह की टिप्पड़ी करने का हक़ इरफ़ान खान को किस ने दिया हैं।
इरफ़ान खान ने पत्रकारों से बात करते हुए अपने एक बयान में कहा कि “ हर मज़हब में दो पहलू होते एक अभ्यास का और दूसरा आत्म मंथन/अध्यात्म/खोज का। किसी भी धर्म में इबादत के जो भी तरीके हैं या रस्म व रिवाज हैं, उन के पीछे एक खास मक़सद होता है। इन के ज़रिये एक इन्सान अपने खुदा तक पहुँचता है। उसकी रूह चमकती है। अपने खुदा से उसका रिश्ता मज़बूत होता। एक इन्सान की पूरी ज़िन्दगी इस रिश्ते को समझने में लग सकती है। अपने आप को और अपने खुदा को पहचानने की कोशिश करना चाहिए। हम इबादत के पीछे छुपे मकसद को उस वक़्त तक नहीं पहुंचेंगे तब तक हम सही मानों में इबादत नहीं कर पाएंगे। जब से धर्म को सिर्फ अभ्यास तक महदूद कर दिया गया है तभी से कट्टरता ने अपना रास्ता बनाया है। आज लोगों ने धामिक इबादतों को पैसों से तोलना शुरू कर दिया है। मेरा अपना वजूद है मैं उसको समझना चाहता हूँ। मेरे और मेरे खुदा के बीच एक रिश्ता है मैं उस तक पहुंचना चाहता हूँ। इस के लिए मुझे किसी की ज़रूरत नहीं। मैं हर रास्ते से उसको तलाश करने की कोशिश करूँगा। आज लोगों ने क़ुरान को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। जब से धर्म का अध्यात्मिक भाग ख़त्म करके लेनदेन वाला धर्म आया है कि यह इबादत करोगे तो तुम को इतना सवाब मिलेगा और इतनी मोक्ष प्राप्त होगी तब से धर्म को दुरूपयोग किये जाने के रास्ते खुल गए”।यह उनकी बहस का खुलासा है। जिस टिप्पड़ी पर उलमा ने आपत्ति जताई है वो यह है “ बकरीद में बाज़ार से बकरा लाकर उस की क़ुरबानी की जाती है। यह तो लोग पैसा खर्च कर रहें हैं। क़ुरबानी नहीं कर रहे हैं। क्या इस से लोग क़ुरबानी के असल मकसद को पहुँच रहे हैं? क्या इस से उनके दिल पर कोई असर होता है”?
इस पर मुस्लिम पोलिटिकल कौंसिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष डॉ तस्लीम रहमानी, आल इंडिया इमाम कौंसिल के अध्यक्ष उमर इलयासी, जमीअत उलमाए हिन्द के अब्दुल बरी खत्री और राजा अकेडमी से मुफ़्ती मंज़ूर जियाई समेत कई लोगों ने इरफ़ान पर इस्लामिक मामलों में आपत्तिजनक टिप्पड़ी करने का आरोप लगाया। डॉ रहमानी ने कहा की इरफ़ान खान को इस्लामी मामलों में बोलने की ज़रूरत नहीं इबादत में किसी भी तरह के आत्मनिरीक्षण की ज़रूरत नहीं । वहीँ उमेर इलयासी ने कहा की इरफ़ान खान अपनी औकात में रहें। उन्हों ने इरफ़ान खान की क्लास लगाने की भी बात कही। अब्दुल बरी खत्री ने इरफ़ान खान को बिना जाने बुझे इस्लामी मामलों टिप्पड़ी करने से दूर रहने की सलाह दी।उन्हों ने कहा को यह सब वो अपनी आने वाली फिल्म के प्रचार के लिए कर रहे हैं। मुफ़्ती जियाई ने कहा कि इस्लाम कॉमन सेन्स से नहीं चलता। हालांकि बहस के मध्य ही में उन्हें अपने विवेक और अकले सलीम का प्रयोग करने की सलाह भी दी।
सवाल यह है की क्या इस्लाम में आत्मनिरीक्षण या इबादत की रूह और मकसद को समझने की ज़रूरत नहीं? क्या किसी भी धार्मिक इबादत, रस्म व रिवाज या परम्पराओं को बगैर उसके पीछे असल मकसद, उसकी आत्मा और रूह को जाने सिर्फ़ अंध भक्ति में उसे अपनाने से धर्म का मकसद हासिल होता हो जाता है? धार्मिक मामलों में बोलने और राय देने का हक़ किस को है? क्या कोई अभिनेता या आम आदमी अपने धर्म को लेकर अपनी कोई बात रख सकता है?
इन सवालों के जवाब और और इस मुद्दे को लेकर हुई बड़ी बहसों पर बात करने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि धर्म क्या है और क्यूँ है। सब से पहले तो यह स्पष्ट कर दिया जाये की धर्म पर किसी की ठेकेदारी नहीं है। हर एक को अपनी बात और विचार रखने का हक़ और अधिकार है। धर्म ने किसी को भी प्रतबंधित नहीं किया है। बल्कि अपने विचारों को किसी पर थोपने से ज़रूर मन किया गया है। क़ुरान में कई जगह बार बार गौर व फ़िक्र करने का हुक्म दिया गया है। आत्मनिरीक्षण को धर्म का एक अटूट अंग मन गया है।
अब धर्म की महत्वता और उसकी आवश्यकता के विषय में बात करते हैं। कोई भी धर्म इन्सान को इंसानी ज़िन्दगी और प्रकृति से मिलाने के लिए होता है। जब कोई इन्सान अपने प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध चला जाता है तो उस वक़्त उसे एक मार्ग दर्शक की ज़रूरत पड़ती है। धर्म वही मार्ग दर्शक है। धर्म इबादत और परम्पराओं का मिश्रण है। इबादत, पूजा, अर्चना हमेशा से थी और यह इबादत की संकल्पना कभी बदल नहीं सकती। लेकिन परम्पराएँ वक़्त और ज़रूरत के अनुसार बदलती रहती हैं। जैसे की सथी प्रथा एक परंपरा थी जो अब बंद कर दी गयी। हर धर्म की इबादत और परम्पराओं के पीछे एक खास मकसद होता है। उसी मकसद को पूरा करने के लिए इबादत की जाती है। हर इबादत इन्सान के जिस्म के साथ उसकी रूह को चमकाती है। अगर इबादत बिना मकसद और रूहानियत के किया जाये तो जिस्मानी फायदा तो मिला सकता है लेकिन उसका रूहानी फायदा नहीं मिला सकता। न इन्सान की रूह पवित्र होती है और न ही उसका सम्बन्ध अपने इश्वर से मज़बूत हो पाता है। दूसरा नुकसान यह है की उसे बहकाना आसान हो जाता है।
दिन और रात की भांति धर्म और अधर्म दो शक्तियां हमेशा से रही हैं। ताकि एक दुसरे का मूल्य और महत्व समझा जा सके। धर्म उस शक्ति से जुड़े रहने का नाम है जिस ने इस सारी स्रष्टि की रचना की है। इस स्रष्टि में मौजूद हर जीव और निर्जीव के साथ अनुकूल व्यवहार करे। अधर्म हमेशा उसके विपरीत कार्य करता है। इबादतें जब रूहानियत के खाली हो जाति है तो इन्सान का अधर्म की तरफ जाना सरल हो जाता है। यही वजह है की धर्म ने हमेशा आत्ममंथन और आत्मनिरीक्षण की शिक्षा दी और उस का अभ्यास कराया है।
सभी ऋषियों, मुनियों, सूफियों और संतो ने सब से पहले इसी रूह को चमकाने और साफ करने की शिक्षा दी है। जब तक रूह पाक साफ नहीं होगी उस दिल में ईश्वर या उसके प्रकाश/नूर का प्रवेश नहीं होता है। इबादत और परम्परों की शिक्षा देने से पहले दिल और रूह को शक्तिशाली बनाते हैं। इबादत के मकसद और और ईश्वर की शक्तियों और निशानियों का आभास कराते हैं। यही वजह है की जब हम धर्म को इन सूफी, संतों और फकीरों की नज़र से देखते हैं तो कहीं भी तनाव/मतभेद/ नज़र नहीं आता। कहीं भी कट्टरता और उग्रता नज़र नहीं आती। जब से धर्म को अध्यात्म से दूर कर दिया गया और उसे रूहानियत से अलग कर के सिर्फ अभ्यास और अमल का मज़हब बना दिया गया वहीँ से साडी मुश्किलें शुरू हो गयीं।
इस्लाम धर्म में पांच फ़र्ज़ (मूल कर्त्तव्य हैं )हैं। कलमा, नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज। पांचों में अभ्यास भी है और अध्यात्म/रूहानियत भी है। कोई व्यक्ति इस्लाम धर्म को स्वीकार करता है तो उसके लिए सब से पहले ज़रूरी है कि वो कलमा पढ़े। कलमा का मतलब वो कुछ शब्द हैं जिन्हें ज़बान से कहने हैं और कहे हुयें शब्दों को दिल और आत्मा से मानना भी है। अब अगर सिर्फ ज़बान से शब्द कह दिया लेकिन उस को दिल से नहीं माना तो वो मुसलमान नहीं हो सकता है। इसी तरह नमाज़ के बारे में कई जगह पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है की नमाज़ के लिए दिल में नियत और इरादा शर्त है। अगर सच्चे मन, ध्यान और नियत के साथ नमाज़ नहीं पढ़ी तो सिर्फ वो उठना, बैठना और सर झुकाना है। इबादत हरगिज़ नहीं है। नमाज़ में दोनों फायदे हैं। विज्ञान के अनुसार इन्सान के शारीर को जितने व्यायाम की आवश्कता है नमाज़ के बीच अदा किये गए अरकान (झुकना बैठना सर को ज़मीन पर रखना ) से वो तमाम आवश्यकतायें पूरी हो जाती हैं। कई योगा विशेषज्ञों ने भी इस बात की पुष्टि की है। नमाज़ के अध्यात्मिक फायदों में से यह है की इन्सान के अन्दर के गुरूर, अहंकार और घमंड निकल जाये। किसी भी व्यक्ति का मान, सम्मान और उसका स्वाभिमान उस के मस्तिस्क में होता है। नमाज़ में वो अपने सर/मस्तिष्क को ज़मीन पर रख देता है। अपने आप को उस शक्ति के अधीन कर देता है जिस ने इस पूरी स्रष्टि को पैदा किया और इस का संचालन करता है। सब के साथ न्याय करता है। अब अगर इस इबादत के बाद भी इन्सान के अन्दर से अन्याय, घमंड, क्रूरता और पाखंडता नहीं गया तो इसका मतलब यह हैं उस ने सिर्फ उठक बैठक की है। इबादत नहीं की।
इसी तरह रोज़ा के बारे में क़ुरान में साफ शब्दों में लिखा है की रोज़ा इसलिए ज़रूरी किया गया ताकि इन्सान परहेज़गार हो जाये। रोज़ा सिर्फ भूके रहने का नाम नहीं। बल्कि आंख, कान, हाथ, पैर, दिल, दिमाग हर चीज़ का रोज़ा है। अगर रोज़ा का मकसद हासिल नहीं हुआ तो भूके प्यासे रहने के सिवा कुछ नहीं। लाखों रुपये हज में खर्च करने के बाद भी अगर ईश्वर की निशानियों से सबक हासिल नहीं किया तो सिर्फ घूमना फिरना है। हज करना नहीं। काले गोरे, अमीर गरीब, छोटे बड़े, सब एक साथ हज की इबादत को अदा करते हैं। ईश्वर की निशानियों की देख कर उस से सीख प्राप्त करते हैं। उस पत्थर को कैसे महत्वता मिली जिस पर खड़े होकर हज़रत इब्राहीम अ.स. ने काबा की तामीर की थी। उस पहाड़ी पर आज भी चक्कर लगाने का क्या फलसफा है जिस पर हज़रत हाजिरा ने अपने बेटे के लिए पानी तलाशते हुए दोड़ लगायी थी। आज भी शैतान को कंकरी क्यूँ मारते हैं। यह सब ऐसे किस्से हैं जिन से सबक लेना है।
ऐसे ही क़ुरबानी का भी मामला है। क़ुरबानी त्याग का नाम है। यह सत्य है कि जानवर की क़ुरबानी होती है। वह इबादत का हिस्सा है। लेकिन जब तक क़ुरबानी में त्याग, बलिदान और खुद को दर्द न हो उस वक़्त तक क़ुरबानी का मकसद हासिल नहीं होता। यह भी भी कहा गया है कि उस रब तक कुर्बान किये गए जानवर का गोश्त, खाल या खून नहीं पहुँचता। उस तक तो क़ुरबानी करने वाले की नियत और उसके दिल के जज़्बात पहुँचते हैं। ईश्वर के लिए त्याग और बलिदान में जो दर्द है दर असल यह रूह तो शांति प्रदान करती है। बिना रूहानियत और अध्यात्म के इबादतों का कोई मतलब नहीं।
इस युग में फैली धर्म के नाम पर हिंसा इस का एक उदाहरण है। वही लोग धर्म का दुरूपयोग कर रहे हैं जिन्हों ने धर्म को बिना अध्यात्म और रूह के समझा है और दूसरों को भी समझा रहे हैं। धर्म का राजनीतिकरण करके नफरत, कट्टरता और उग्रता के बीज बो रहे हैं। आज इबादतों और अभ्यास के साथ अध्यात्मिक शिक्षाओं की अति आवश्यकता है। धर्म के नाम पर हो रहे अधर्म, नफरत एवं हिंसा की राजनीति की रोकथाम के लिए यही मात्र विकल्प है। वरना किसी भी धर्म का छोटा सा समूह ऐसे ही धर्म का दुरूपयोग करता रहेगा। युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करता रहेगा। धर्म गुरु बस अपने भाषणों में ही धर्म की सफाई देते रहेंगे। समाज में अन्याय अरु अशांति फैलती रहेगी। धर्म के नाम पर मानवता यूँ ही शर्मिंदा होती रहेगी। हम यूँ ही लिखते रहेंगे। टीवी चैनल बहस करेंगे और बुधजीवी संगोष्ठी कर के अपना कर्तव्य पूरा करेगें। धर्म के नाम पर सत्ता और विपक्ष के चूल्हे पर राजनैतिक रोटियां सेंकी जाएँगी। एक का खून बहेगा दूसरा अपनी बारी की प्रतीक्षा करेगा। आखिर कब तक ?
Abdul Moid Azhari (Amethi) Email: abdulmoid07@gmail.com Contanct: 9582859385

वही लोग धर्म का दुरूपयोग कर रहे हैं जिन्हों ने धर्म को बिना अध्यात्म के समझा है
ReplyDeletehttp://goo.gl/s3p0WT
www.newnews.co.in
ReplyDelete