Thursday, January 23, 2020

उर्दू अदब के जादूगर कहाँ हैं? Where are the Urdu Legends?

उर्दू अदब के जादूगर कहाँ हैं?

[अब्दुल मोईद अज़हरी]
आज भारत एक सामाजिक आन्दोलन के एतिहासिक दौर से गुज़र रहा है। भारत के नक्शे पर हर राज्य में एक इंकलाबी शाहीन बाग स्थापित हो रहा है। शाहीन बाग अब दिल्ली के ओखला की एक कॉलोनी नहीं रही। हर वह जगह जहाँ अत्याचार, ज़ुल्म, अराजकता, तानाशाही, ज़िद और हठधर्मी के विरुद्ध, शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन हो, जिस में वक्त के बादशाह की आँख में आँख डाल कर मानवता, संविधान और लोकतंत्र की लड़ाई लड़ी जाये उसे शाहीन बाग कहा जाता है।
15 जनवरी को दिल्ली पुलिस ने अपनी बर्बरता का क्रूर रूप दिखाते हुए जामिया के निहत्थे छात्रों पर जिस तरह हमला किया था। कैंपस की लाइब्रेरी में और बाथरूम में घुस कर देश की बेटियों पर हमला किया था। उस ने देश की माताओं के दिलों को ज़ख्म से भर दिया। जामिया के एक छात्र की आँख चली गई। किसी का हाथ तो किसी का पैर टूट गया। इन ज़ख्मों ने देश की आधी आबादी को 2 डिग्री की ठण्ड और सर्दी की बरसात में भी सड़कों पर बिठा दिया।
80 साल से ज़्यादा उम्र की औरतों ने आज़ादी की लड़ाई के मंज़र वापस लौटते हुए देखे। बीस दिन की बच्ची जिसे जनवरी की कपकपाती हुई ठण्ड में कई कम्बलों के अन्दर होना चाहिए था वह शाहीन बाग की सड़कों पर भविष्य के भारत का निर्माण अपने कोरे दिमाग की मेमोरी में सेव कर रही है।
इतिहास साक्षी है, दुनिया के जितने भी इन्कलाब हों उस में कलाकारों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है। भिन्न भिन्न प्रकार के कलाकारों ने अपने अपने अंदाज़ से अपने अपने दौर के इन्कलाब में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 
कला के साथ साहित्य का भी बड़ा योगदान रहा है। हर ज़बान, अदब और साहित्य ने इंकलाबी नारे लगाए हैं, कवितायेँ लिखी हैं और लेख से जोश भरा है। भारत की आज़ादी में पहले शहीद उर्दू के पत्रकार/ सहाफी मोलवी मोहम्मद बाक़र थे जिन की तहरीर भारतीय नौजवानों में इन्कलाब की आग को शोले बना रही थी। उन्हें सज़ा के तौर पर तोप के मुंह में बिठा कर उड़ा दिया गया था।
शाहीन बाग़ में कला के उच्च वर्ग के उदाहरण देखने को मिलेंगे। ज़्यादा संख्या युवाओं की है। शाहीन बाग की सड़कों को बागी सड़कों में बदल दिया। ज़बरदस्त आर्ट देखने को मिला। पोस्टर देख कर दंग रह जायेंगे। प्रदर्शनकारियों ने शाहीन बाग का अपना इंडिया गेट बना दिया। उस गेट पर उन सभी लोगों के नाम लिख दिए जिन्हें शाही फरमान वाली पुलिस ने अपनी अवैध बर्बरता का निशाना बनाते हुए उन की जान ले ली।
यही नहीं प्रदर्शन की एकता और अखंडता को दर्शाने के लिए वहां लगभग 40 फीट ऊँचा भारत का नक्शा खड़ा कर दिया। यही वजह है कि शाहीन बाग अब सिर्फ़ दिल्ली की एक जगह नहीं रहा वह इतिहास के पन्नों में गोडसे के ख़िलाफ़ गाँधी की मिसाल बन गया है।
उर्दू शायरी के इतिहास में बग़ावत की बड़ी अहमियत है। आज भी फैज़ के नाम से लोग जल भुन जाते हैं। समाजी ताने बाने के लिए आज भी इक़बाल को कोट किया जाता है।
सवाल यह है कि आज इस नाज़ुक दौर में उर्दू का वह तेवर देखने को क्यूँ नहीं मिलता। शायर, सहाफी, तजज़िया कार, मज़मून निगार, बुद्धिजीवी और क़लम के जादूगरों की पूरी जमात का क़लम टूटा हुआ नज़र आ रहा है। स्याही ठण्ड हो कर जम गयी है। फ़िक्र और तदबीर अपाहिज और समाजी ताने बाने के सभी बुनियादी ख़याल सर्द ख़्वाब की नज़र हो गए हैं।
जहाँ एक तरफ़ तथाकथित धार्मिक क़यादत, पेशेवर राजनैतिक नेतृत्व और मौक़ा परस्त बुद्धिजीवी और स्कॉलर्स ने भारत की बेटियों को सड़क पर तनहा छोड़ दिया है वहीँ इन शायरों, कवियों और लेखकों ने भी अपनी कलमें तोड़ डाली हैं स्याही में पानी डाल दिया है।
तारीख़ इस पहलू को भी लिखेगी।

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