Saturday, May 2, 2020

हमदर्दी और शालीनता रोज़े की रूहानी ताक़त हैं


हमदर्दी और शालीनता रोज़े की रूहानी ताक़त हैं

[अब्दुल मोईद अज़हरी]

लगभग हर धर्म में रोज़ा या उपवास का ज़िक्र और उल्लेख मिलता है क्यूंकि भूख इन्सान की रूह को पवित्र और ताक़तवर बनाती है। यही वजह है कि रमज़ान का महीना मुसलमानों के लिए सब से महत्वपूर्ण होता है क्यूंकि इस महीने की भूख और इबादत इन्सान के नफस यानि रूह को पाक साफ़ और आत्मा को शक्तिशाली बनाती हैं। क़ुरान में खुदा का साफ़ बयान है कि तुम पर रोज़े इस लिए फ़र्ज़ किये गए हैं ताकि तुम परहेज़गार हो जाओ। यानि तुम्हारा मन साफ़ हो जाये। जिस तरह जिस्म की गंदगी साफ़ करने के लिए नहाना ज़रूरी होता है उसी तरह रूह की सफाई के लिए इबादत और ध्यान लगाना ज़रूरी होता है। भूखे रहकर ध्यान लगाना और भी आसान एवं प्रभावशाली हो जाता है।
पैग़म्बर ए इस्लाम ने भी यही फ़रमाया है कि आप की भूख और प्यास का कोई मतलब नहीं अगर इस से आप का मन साफ़ नहीं हुआ और आप की रूहानी ताक़त नहीं बढ़ी। मन की सफाई का अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि आप के दिल में अपने से छोटे लोगों के लिए हमदर्दी है या नहीं है। किसी को दर्द में देख कर इंसानी रिश्तों के जज़्बात उभरते हैं कि नहीं। अपने किसी पड़ोसी के भूखा सो जाने पर आप को तकलीफ़ होती है कि नहीं। किसी ज़रूरत मंद की आप मदद का हाथ बढ़ाते हैं कि नहीं। अपने से किसी ग़रीब या कमज़ोर को देख कर घमंड और गुरूर और अपने से किसी मज़बूत और अमीर को देख कर ईर्ष्या या लालच के भाव तो नहीं पैदा हो रहे हैं।
अगर तीस दिन के रोजों और इबादत के बाद भी आप के हाथ ज़ुल्म के लिए और आप के पैर गुनाहों की तरफ बढ़ते हैं तो आप का भूखा रहना बेकार है। अगर अब भी आप को अपनी अमीरी पर घमंड या ग़रीबी पर शर्मिंदगी है तो रोजों का कोई मतला नहीं है। अगर अभी भी आप झूट बोलते हैं, किसी का हक मारते हैं, चोरी चुगली या चालबाज़ी करते हैं तो यह रोज़ा के नाम पर भूख और दूसरी इबादतें एक धोका हैं जो आप खुदा को देना चाहते हैं लेकिन दर असल आप ख़ुद को दे रहे हैं।
रोज़ा ख़ुद और ख़ुदा के बीच क़ायम रिश्ते और तअल्लुक़ को जाने का एक बेहतरीन ज़रिया है। ख़ुदा का मुसलसल ज़िक्र, उस के सैकड़ों नामों का विर्द और उस के नाम पर उस के दुसरे बन्दों इ सतझ अच्छा बर्ताव इस रिश्ते को मज़बूत करता है। दुसरे महीनों के मुक़ाबले रमज़ान में इन्सान ज्यादा रहमदिल, हमदर्द और नेक होता है क्यूंकि वो इस पूरे महीने अपने मालिक और पालनहार से रिश्ता क़ायम रखे हुए होता है।
रमज़ान का पूरा एक महीना उसी रिश्ते को हमेशा क़ायम रखने की ट्रेनिंग देता है। हालाँकि ज्यादा तर ऐसा होता है कि लोग इसे एक महीने की ड्यूटी समझ कर बाकी महीनों में इस से गाफ़िल हो जाते हैं। जबकि भूख, ज़रूरत, और तलब हमेशा की तरह हमेशा रहते हैं। एक महीने की रहम दिली से साल भर की भूख नहीं मरती है। और हाँ दूसरों को खाना खिलाना एहसान नहीं ज़िम्मेदारी है ड्यूटी नहीं फ़र्ज़ है।



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